Monday, April 30, 2012

पिंजरा


मैं खुद के बनाए
पिंजरे में बंद पंछी सा हूँ
जो पिंजरे की
जालियों के पार
देख तो सकता है
पिंजरे के
नियम कायदों से
मन में छटपटाहट
भी होती है
कई बार खुद को बेबस
महसूस करता हूँ
स्वछन्द उड़ना चाहता हूँ 
पर पिंजरे से
इतना मोह हो गया
कोई दरवाज़ा खोल भी दे
तो चाह कर भी
उड़ नहीं पाऊंगा
30-04-2012
485-66-04-12

आज वो नज़र आ गए


आज वो
नज़र आ गए
यादों के बाँध के
दरवाज़े खुल गए
कल कल करता
टूटे रिश्तों का पानी
धड धडा कर बहने लगा
कैसे रिश्तों की
ज़मीन में दरार पडी
अहम् ने खाई में बदल दी
किनारे इतने दूर हो गए
चाह कर भी फिर मिल
नहीं सके
साथ बिताए समय का
एक एक द्रश्य आँखों के
सामने से गुजरने लगा
ह्रदय पीड़ा से भरने लगा
आँखों से
अश्रु निकलने ही वाले थे
मैंने मन को कठोर किया
फिर ह्रदय से प्रश्न किया
क्यों फिर से
चक्रव्यूह में फसना
चाहती हो
पहले जो भुगता
क्या वो कम नहीं था
भूल जाओ
जो छूट  गया उसे छूट
जाने दो
आगे बढ़ो 
कुछ नया करो
कोई नया साथ ढूंढों
दिल से दिल
मन से मन मिलाओ
अहम् को ताक में रखो
जो पहले करा अब
ना करना
हँसते हुए सफ़र पर
चल पड़ो
30-04-2012
484-65-04-12

क्यूं पहचानेगा कोई मुझे अब मेरे शहर में


कोई मुझे
अब मेरे शहर में
हो गया अनजाना अब
अपने ही शहर में
सोने चांदी से
भर गयी झोलियाँ सबकी
बन गए मकाँ बड़े बड़े
सीख गए चालें ज़माने की
अपनों को लात मार कर
आगे बढ़ने का हूनर भी
आ गया
मैं ईमान-ओ-दोस्ती के
गुमाँ में
वही खडा रह गया
नहीं कर सका बराबरी
उनकी
उनसे पीछे रह गया
क्यूं पहचानेगा कोई
मुझे अब मेरे शहर में
29-04-2012
483-64-04-12

जी का वन ही तो जीवन है


जीवन के
सृजन कर्ता से
पूछा मैंने एक दिन
क्यों आपने संसार में
सांस लेने वालों का नाम
जीव रखा
वो मुस्कारा कर बोला
जी का वन ही तो जीवन है
जिसमें सुन्दर पेड़ हैं तो
कंटीली झाड़ियाँ भी
इंसान हैं तो
हिंसक जानवर भी
कल कल करते झरने हैं तो
गंदे पानी से भरे गड्डे भी
नर्म घास के मैदान हैं तो
पथरीले रास्ते भी
मारने वाले हैं तो
बचाने वाले भी
क्या नहीं है
जी के इस वन में
यह सोच मैंने
सांस लेने वालों का
नाम जीव
सांस जब तक चले
तब तक जीवन के
नाम से
संबोधित किया
28-04-2012
481-62-04-12